Wednesday, July 15, 2015

दुविधा (भाग २)

कई बार सोचता हु की जो अभी हे उस पर खुश रहू क्यों की ये भी मेरी कल्पनाओ से अधिक ही हे .लेकिन जब वास्तविक परिस्तिथियों से दो चार होता हु , तो कितना 'असहाय' हु. ये ज्ञात होता हे.
हर व्यक्ति के सुख और दुःख के अलग अलग मायने होते हे . कभी किसी से तुलना हो भी नहीं सकती|
अभावग्रस्त बचपन और रुचि विहीन लाचार परिस्तिथियो   ने जीवन में कई अकांक्षाओ और जिज्ञासाओ को उभरने ही नहीं दिया .मगर महत्वाकांक्षा  कही छुपी हुई  सिसकते हुए परछाई तले साथ चल रही थी | समय ने महत्वकांक्षा को भी प्राण वायु दिया और जीवन की आवश्यकताओ ने कर्म के मार्ग पर धकेला. लेकिन वो गति कभी मिल नहीं पाई की अभावो के अँधेरे को चांदनी रात की रौशनी दे सकू .हमेशा तारो की चंद किरणों में यात्रा अनवरत जारी रही .
दुविधा यही हे की मैं कभी ये तय नहीं कर पाया की मुझे जाना कहा हे .
हर बार किसी पड़ाव पर सहयात्री भी मिले कुछ कदम साथ भी चले मगर पता नहीं क्यों फिर साथ छोड़ गए कभी किसी ने कारण नहीं बताया. मुझमें क्या कमी थी या मेरे किस कदम से असहमत थे कभी नहीं बताया. ये मेरे लिए आज तक रहस्य ही हे की में अकेला क्यों हु . 
हो सकता हे कही मैं उनपर बोज बन गया हु या मेरी वाणी असहनीय हो गयी हो या मेरा कद उनको छोटा लगने लगा हो परन्तु कह तो सकते ही थे...मैं अभी तक अपनी उस कमी को खोज रहा हु.
क्या दुनिया में ऐसा कोई दर्पण हे जो आपको आपकी सीमाओ का ज्ञान करा दे..और अगर किसी दर्पण से वो ज्ञान हो भी गया तब क्या मैं स्वीकार्य हो जाऊंगा ?.यही दुविधा हे .. ......Hari

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